BIRTH ANNIVERSARY | अमृत से अल्फ़ाज़ों वाली अमृता

31 अगस्त 1919 को पंजाब के गुजरांवाला में एक बच्ची ने जन्म लिया। जिसने बचपन से ही अपने लिए कल्पनाओं की एक अलग दुनिया बसा ली थी। जहां अहसासों की खुशबू थी और शब्दों का बसेरा था। पर तब किसी ने नहीं सोचा था कि उनके शब्द तमाम लोगों की ज़िंदगी के किस्सों और चाहतों के हिस्सों में सवेरा बनकर दाखिल होंगे। आज UNBIASED INDIA शब्दांजलि दे रहा है पंजाबी भाषा की पहली कवयित्री, पद्मविभूषण अमृता प्रीतम को।
अमृता ने सौ से ज्यादा किताबें लिखीं, जिनमें उनकी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ भी शामिल है। उन्होंने कई ऐसे उपन्यास लिखे जिनमें बंटवारे के दर्द को कुछ यूं बयां किया कि पढ़ते हुए ऐसा लगता मानो सब कुछ आंखों के सामने ही घट रहा हो।

आइए आज आपकी नज़र करते हैं अमृता प्रीतम की कुछ रचनाएं…

पहचान …

तुम मिले
तो कई जन्म
मेरी नब्ज़ में धड़के
तो मेरी साँसों ने तुम्हारी साँसों का घूँट पिया
तब मस्तक में कई काल पलट गए–
एक गुफा हुआ करती थी
जहाँ मैं थी और एक योगी
योगी ने जब बाजुओं में लेकर
मेरी साँसों को छुआ
तब अल्लाह क़सम!
यही महक थी जो उसके होठों से आई थी–
यह कैसी माया कैसी लीला
कि शायद तुम ही कभी वह योगी थे
या वही योगी है–
जो तुम्हारी सूरत में मेरे पास आया है
और वही मैं हूं, और वही महक है।                  

दावत

रात-कुड़ी ने दावत दी
सितारों के चावल फटक कर
यह देग किसने चढ़ा दी
चाँद की सुराही कौन लाया
चाँदनी की शराब पीकर
आकाश की आँखें गहरा गयीं
धरती का दिल धड़क रहा है
सुना है आज टहनियों के घर
फूल मेहमान हुए हैं
आगे क्या लिखा है
आज इन तक़दीरों से
कौन पूछने जायेगा…
उम्र के काग़ज़ पर —
तेरे इश्क़ ने अँगूठा लगाया,
हिसाब कौन चुकायेगा !
क़िस्मत ने एक नग़मा लिखा है
कहते हैं कोई आज रात
वही नग़मा गायेगा
कल्प-वृक्ष की छाँव में बैठकर
कामधेनु के छलके दूध से
किसने आज तक दोहनी भरी !
हवा की आहें कौन सुने,
चलूँ, आज मुझे
तक़दीर बुलाने आई है…

रात ऊँघ रही है…

रात ऊँघ रही है
किसी ने इन्सान की
छाती में सेंध लगाई है
हर चोरी से भयानक
यह सपनों की चोरी है।
चोरों के निशान —
हर देश के हर शहर की
हर सड़क पर बैठे हैं
पर कोई आँख देखती नहीं,
न चौंकती है।
सिर्फ़ एक कुत्ते की तरह
एक ज़ंजीर से बँधी
किसी वक़्त किसी की
कोई नज़्म भौंकती है।

कुफ़्र

आज हमने एक दुनिया बेची
और एक दीन ख़रीद लिया
हमने कुफ़्र की बात की
सपनों का एक थान बुना था
एक गज़ कपड़ा फाड़ लिया
और उम्र की चोली सी ली
आज हमने आसमान के घड़े से
बादल का एक ढकना उतारा
और एक घूँट चाँदनी पी ली
यह जो एक घड़ी हमने
मौत से उधार ली है
गीतों से इसका दाम चुका देंगे।

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