भारतीय मूल्यों को नई पीढ़ी तक पहुंचाना हमारी अहम जिम्मेदारी

✍️ सौम्य दर्शना

भारतीय सभ्यता—संस्कृति को देश—दुनिया तक पहुंचाने के लिए जिन आविष्कारों का इस्तेमाल किया जाना था, उनकी चकाचौंध में पड़कर हम स्वयं ही भारतीयता से कटते जा रहे हैं और आधुनिकता या कहें कि पश्चिमी सभ्यता—संस्कृति की तरफ बढ़ते जा रहे हैं। आधुनिक जीवन में गैजेट क्या आ गया, हम अपनी धर्म—परंपरा से कटते चले गए। हम इन गैजट का इस्तेमाल नहीं कर पाए, बल्कि मोहरे बन गए। हमें ठहरकर सोचने की जरूरत है कि हमारे माता—पिता से प्राप्त मूल्यों को हमने अपने बच्चों तक कितना पहुंचाया? अरे, हमने तो खुद ही आधुनिक रहन—सहन को ही अपने जीने का सलीका बना लिया है। एक अंधी दौड़ चल पड़ी है…।

सोचिए तो सही, दिखावे में हम कहां पहुंचते जा रहे? जो लोग दिखावे का स्टैंडर्ड उठाने के चक्कर में पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण कर रहे हैं, वे किस गर्त में जाएंगे, अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। पढी—लिखी स्त्रियाँ सिर्फ सजने—संवरने और सेल्फी लेने को ही जीवन का उद्देश्य समझ बैठी हैं। हम मध्य आयु वर्ग के लोगों को खुद को सौभाग्यशाली समझना चाहिए कि हमें उन मानवीय मूल्यों और गुणों की शिक्षा मिली जिनसे हम जीवन की जटिलताओं को समझ सकें और परिस्थितियों के अनुसार उपयुक्त व्यवहार कर सकें किंतु क्या हम देश के भावी कर्णधार अपने बच्चों को यह शिक्षा दे पाएंगे? हम जब स्वयं ही उन मूल्यों को व्यवहार में शामिल नहीं कर रहे हैं, हम सब कहीं कुछ पीछे छोड़ते जा रहे हैं तो हम नई पीढ़ी को क्या देंगे? हमें स्वयं को टटोलने की जरूरत है…।

एक बार याद कीजिए कि कैसे पहले शराब सेवन को एक गलत आचरण के रूप में देखा जाता था। आज यह एक स्टैंडर्ड बन गया है। जो एक समय में खराब थी, वही चीज आज के समय में अच्छी कैसे हो सकती है? फिर खुद शराब पीते हुए अपने बच्चों को हम कैसे शिक्षा दे सकते हैं कि शराब पीना खराब बात है और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है? इसी प्रकार अन्य बहुत सी आदतें और व्यवहार जो एक समय में मानवीय मूल्य और आदर्श माने जाते थे, वो बातें आज के समय में पिछड़ेपन का पर्याय बताई जाने लगी हैं।

हमारे बचपन में दादी—नानी राम चरित मानस का पाठ करती थीं। एक—एक दोहे चौपाई में जीवन से संबंधित मूल्य और आदर्श होते थे। ईश्वर की सत्ता में विश्वास बचपन से ही होने लगता था और बुरे कर्मों के दुष्परिणाम से परिचित होते हुए उससे दूर होने की सीख भी मिलती थी। इसलिए तब मानवीय संवेदना जीवित थी। आज मानवीय संवेदना का स्तर कहा जा पहुँचा है, यह नित प्रतिदिन होने वाली घटनाओं से ही सिद्ध हो रहा है। कोई किसी को नदी में डूबते हुए सेल्फी ले रहा है तो कोई विडियो बना रहा। अगर इतनी क्रूरता मानव मन में समाहित है तो सोचिए आने वाले समय में मनुष्य कितना पाषाण हृदय होगा?

बात यदि मां की ही करें तो माँ किसी भी बच्चे की प्राथमिक शिक्षिका होती है। यदि माँ अपना उत्तरदायित्व ठीक से ना निभा पाये तो बच्चे का पुरा जीवन प्रभावित होता है। आज की मां क्या बच्चों को समय न देकर, उन्हें उस शिक्षा से वंचित नहीं कर रही? किसी भी समाज को सिर्फ वहाँ की अर्थव्यवस्था ऊपर करके विकसित नहीं बनाया जा सकता है। एक—एक व्यक्ति की आदतें, व्यवहार, चरित्र, उनमें परस्पर समानुभूति की भावना जैसे मनोवैज्ञानिक गुणों का जब तक विकास नहीं होगा तब तक समाज कितना भी तरक्की कर ले, पीछे ही रहेगा।\

हम भारतवासी इतने धन्यभागी हैं कि हमारे पास हमारी सनातन प्राचीन हिन्दू सभ्यता और संस्कृति है जो वैज्ञानिक ढंग से भी बेहद उन्नत है। वसुधैव कुटुबंकम की भावना ही इसका विराट स्वरूप उजागर करती है और बताती है कि कितना विशाल स्वरूप है इसका। लेकिन आज के गलाकाट प्रतियोगिता के दौर में एक—दूसरे को येन केन प्रकारेण नीचा दिखाने की प्रवृत्ति चल पड़ी है। सम्यक् द्रष्टि सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र की हमारी जो संस्कृति, जो दर्शन, भारतीय जीवन का था, उस पर धूल जम चुकी है। आज हमारी महती जिम्मेदारी हो जाती है कि हम उस धूल को साफ करें और अपनी संस्कृति और सनातन हिन्दू धर्म के मूल्यों को न सिर्फ बचाएं बल्कि नई पीढ़ी तक पहुंचाएं भी। धर्म को सिर्फ ग्रंथ—पुराणों में ही नहीं, बल्कि आचरण में शामिल कर एक नवयुग के भारत का निर्माण करें।
इन्हीं उम्मीदों के साथ आप सभी को प्रणाम!
जय सनातन ! जय भारत!!

(बनारस की रहने वाली सौम्या दर्शन भारतीय संस्कृति और मूल्यों की न सिर्फ प्रशंसक हैं, बल्कि उसके अनुरूप व्यवहार भी करती हैं। इसी विषय से संबंधित अपना यह लेख उन्होंने UNBIASED INDIA के साथ साझा किया है।)

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