प्रेमचंद की जयंती पर विशेष
कथा सम्राट प्रेमचंद का नाम कौन नहीं जानता? आज उनकी जयंती है। 31 जुलाई 1880 को वाराणसी के लमही में जन्मे प्रेमचंद का 8 अक्टूबर 1936 को निधन हो गया था। आज प्रेमचंद की जयंती पर गोरखपुर की अर्पण दूबे ने उन्हें चन्नर काका के रूप में संबोधित करते हुए याद किया है और अपनी स्मृतियां Unbiased India के साथ साझा की हैं। पढ़िए—
घर में टेलीविजन वाले कमरे के पाँच रैक किताबों से भरे होते थे। सबसे नीचे वाले रैक में पंचतंत्र और बालपत्रिकायें होती थीं। सबसे ऊपर वाले रैक में मोटी किताबें होती थीं जहाँ तक हाथ पहुंचे इसके लिये हमें कुर्सी पर खड़ा होना होता था।
याद आता है उस समय में चौथे दर्जे में थी, शनिवार को लेखकों के नाम और उनकी रचनाओं की अंत्याक्षरी होने वाली थी, उस दिन पहली बार उस मोटी पुस्तक को अपने लिये खोला यूं कहे कुर्सी पर चढ़कर ऊपर वाले रैक की पुस्तक अपने लिये उतारने का यह पहला अनुभव था। उस किताब के ऊपर न्यूज़ पेपर का कवर लगा हुआ था जिस पर उस समय हम सबकी अपने बुद्धि अनुसार उस समय की फेवरिट वालीवुड हीरोइन रानी मुखर्जी की हँसती हुयी तस्वीर लगी हुयी थी जिसके कारण किताब खोलने में थोड़ा अधिक समय लगा। इस बात को बताने का यहाँ पर बहुत मतलब नहीं फिर भी मन में आया कि यह बात भी आपको बता दूं, क्योंकि हाथ में जो गुलाबी पेन था उससे रानी मुखर्जी को बिंदी और लिपस्टिक लगाने में एक घंटा गया था और हरे रंग का फ्राक जो मैंने पहन रखा था उसपर भी गुलाबी छींटे यूं कहें गोजापाती कुछ ज्यादा हो गये सो बाद में डांट भी पड़ी थी। उस किताब को खोलने पर ‘मानसरोवर’ शब्द ने स्वागत किया और फिर यह सिलसिला आज तक जारी है।
इस बीच आपकी कर्मस्थली से लेकर लमही तक को महसूसने का सुख घुमक्कड़ी ने दिया और आपकी कहानियाँ आज भी गाँव के दखिन टोले में चल रही हैं और आपके किरदार आज भी बड़ी बिल्डिंग्स के बड़े कमरे में बड़े ब्रांड के कपड़े के भीतर छुपकर बैठे हुये हैं । जब सोजे वतन की एक प्रति हाथ लगी तो मन बहुत सोच रहा था कि आप पर क्या बीती होगी जब उस किताब के पैर बांधने की अजीब कोशिश हुयी होगी।
सच कहूं तो आपके कई उपान्यास तब पढ़े जब अपनी बुद्धि अपने पैर खड़ी होने लायक भी न थी, फिर तो धुंधली यादें, लेकिन गबन, गोदान और निर्मला की बहुत सी घटनायें आस पास चल रही हैं अभी भी।
पता है! काका हर कोई नहीं हो पाता, काका होने के लिये सुख दु:ख कहना बांटना आना चाहिए, जो आप और आपकी लेखनी सदैव करती रही है। काका ही तो काकी जाति का दु:ख समझते हैं, काका को ही तो पता है कि बाऊजी के रौब से गाँव के किस जमात को पीड़ा है और अम्मा के एक हँसी पर कहाइन क्यों खुश हो जाती है।तमाम बातों को सोचकर मन आपको काका ही संबोधित करता है।
जब बैदनाथ मिसिर जी ने आपके गोरखपुर के दिनों के रिहाइश में कुछ देर अपनी इच्छानुसार विचरने का मौका दिया तो बहुत से प्रश्नों का उत्तर मिला बाकी प्रश्नों का उत्तर आपको कई कई बार पढ़ने पर ही मिले शायद।
मैं सोचती हूँ अगर उस जमाने में होती तो आपको एक चमड़े के रंग का कुर्ता जरूर सिलकर पहनाती। इसीलिए सोचा है रंग कोई भी हो कुर्ता जरूर सिलूंगी, और मन ने जिस लेखक या लेखिका को कह दिया उसको गिफ्ट करूंगी लेकिन उस व्यक्ति के अंदर इतनी काबिलियत हो कि काका शब्द से न्याय कर सके, तभी तो कढ़ाई करके काका भी लिखूंगी।
आप तो बचपन से ही काका है न इसीलिये जो आया जैसे आया लिख दिया बाकी बातें हवा में अपने जादुई पेंसिल से पूरकर चिट्ठी बनाऊंगी और हमारे संवाद के बीच कोई नहीं आयेगा, फेसबुक भी नहीं।
आपकी हरे फ्राक वाली बच्ची, अरे वही रायगंज बाजार वाली …