
जिंदगी को जब मैं अपने रंग दिखाती हूँ,
वो दीया बुझाती हैं, मैं दीया जलाती हूं!
मैं उदास रातों में ढूंढ़ती हूं ख़ुद को ही,
जब कहीं नही मिलती, थक के सो जाती हूँ!
कुछ नजर नहीं आता मुझे अँधेरे में,
कौन है जिसे अपनी उंगलियां थमाती हूँ!
खुशबू आती है, जिसके पास आने से,
जानती नहीं लेकिन रोज मिल के आती हूँ!
रोशनी का इक दरिया बह रहा है सदियों से,
तैरती हूँ मैं जिसमें और डूब जाती हूं!
जिन्दगी की इक अजब आदत आ गई मुझमें,
जो मुझे रुलाते हैं, मैं उन्हें हँसाती हूँ!!
(छपरा, बिहार की रहने वाली अंजली की साहित्यिक अभिरुचि है और वह काव्य मंचों पर सक्रिय रहती हैं। अंजली ने अपनी यह रचना UNBIASED india के साथ साझा की है।)