कोरोना वायरस ने इस समय देश ही नहीं, पूरी दुनिया में तबाही मचा दी। इसने न सिर्फ स्वास्थ्य व्यवस्था बल्कि अर्थव्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था, कानून व्यवस्था, रोजगार व्यवस्था और लगभग देश—दुनिया की सभी कथित सुनियोजित व्यवस्थाओं की पोल खोलकर रख दी। यह तो बात हुई “आरएनए” वायरस की। लेकिन, क्या आप जानते हैं कि इससे कहीं अधिक घातक है राजनीति के अंदर घुला हुआ क्रिमिनल वायरस। यह वायरस कोरोना से कहीं अधिक घातक है जिसने वर्षों से देश की हर व्यवस्था की मिट्टी पलीद कर रखी है।
राजस्थान में बगैर चुनाव ही सत्ता हथियाने की होड़ मची हुई है तो बिहार में चुनाव की तैयारी चल रही है। ऐसे में कोरोना वायरस के साथ ही क्रिमिनल वायरस के खतरों से आगाह कराना जरूरी हो गया है। इतना ही नहीं, यह इसलिए भी इस समय ज्वलंत विषय बन चुका है क्योंकि हाल ही में उत्तर प्रदेश में गैंगस्टर विकास दुबे को एक नाटकीय एनकाउंटर में मार गिराया गया। सवाल यह है कि यदि उत्तर प्रदेश में हर अपराधी का इलाज एनकाउंटर है तो फिर उसी प्रदेश की विधानसभा में बैठे नेताओं पर तमाम केस हैं, उनका क्या होगा? यही नहीं, देश की संसद में भी दर्जनों आपराधिक केस वाले नेता पहुंचे हुए हैं, उनके लिए क्या इंतजाम है? जाहिर है, कोई इंतजाम नहीं है, कोई उपाय नहीं है। क्योंकि, राजनीति में क्रिमिनल वायरस का कोई तोड़ नहीं है। यह लाइलाज है, कोरोना से भी बहुत पहले से और कोरोना की दवा ढूंढ लिए जाने के बाद भी यह नासूर ही रहेगा क्योंकि इसके इलाज का कोई प्रयास भी नहीं हो रहा है।
सांसदों पर क्रिमिनल केस
आंकड़ों की बात करें तो देश की संसद में 2004 में 24% एमपी (मेम्बर ऑफ पार्लियामेंट) ऐसे हुए थे, जिनके नाम पर क्रिमिनल (आपराधिक) केस दर्ज हैं। यानी 543 सांसदों में से 130 किसी न किसी अपराध में संलग्न थे। 2009 में यह आंकड़ा 30% पहुंच गया। 2014 में 34 फीसदी एमपी पर अपराध के मामले दर्ज थे। इस आंकड़े में 2019 में एक बड़ा उछाल हुआ और ऐसे सांसदों की संख्या 43 फीसदी पहुंच गई। यानी अभी संसद में 543 सांसदों में से आधे पर क्रिमिनल केस हैं।
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा था?
संसद में अपराधिक केस वाले नेताओं की संख्या बढ़ती देखकर सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी 2020 में एक फैसला सुनाया था। सुप्रीम कोर्ट ने सभी राजनीतिक दलों को आदेश दिया कि उन्हें अपने उम्मीदवारों के आधिकारिक मामलों का रिकॉर्ड अपनी वेबसाइट पर दिखाना होगा। साथ ही पार्टियों को बताना होगा कि वे क्रिमिनल बैकग्राउंड वाले उम्मीदवारों को टिकट क्यों दे रहे हैं।
अब बिहार की बारी
इस समय बिहार पर दारोमदार है कि वह चाहे तो क्रिमिनल वायरस का बहुत हद तक इलाज कर सकता है। लेकिन, क्या बिहार के लोग ऐसा करेंगे? इस प्रदेश में तो यह वायरस और बुरी तरह फैला हुआ है। एक नजर खुद ही देख लीजिए—
- राज्य के मोकामा से निर्दलीय विधायक अनंत सिंह पर हत्या की साजिश के कई मामले में दर्ज हैं, जिनको कुछ ही दिन पहले जमानत मिली है।
- लोक जनशक्ति पार्टी नेता और पूर्व सांसद सूरजभान सिंह पर कई आपराधिक मामले दर्ज हैं।
- तेजाबकांड के लिए मशहूर शहाबुद्दीन और लालू प्रसाद यादव के करीबी माने जाने वाले राष्ट्रीय जनता दल के नेता बिहार के सीवान से चार बार सांसद और दो बार विधायक रह चुके हैं।
- बिहार पीपल पार्टी के संस्थापक और पूर्व सांसद आनंद मोहन सिंह का नाम अपराध के कई मामलों के लिए जाना जाता है।
ऐसे ही कई नाम हैं, अगर इनकी सूची बनाई जाए तो कई दिन लग सकते हैं। इनमें से कईयों को पद से बर्खास्त कर दिया गया है तो कई अब भी विराजमान हैं।
उपाय क्या है?
सुप्रीम कोर्ट ने राजनीति में क्रिमिनल वायरस को रोकने के लिए दिशा—निर्देश तो जारी कर दिए लेकिन सख्ती नहीं दिखाई। नतीजा यह है कि पहले की ही तरह आपराधिक छवि के नेता विधानसभा से लेकर संसद तक में भरे पड़े हैं। चुनाव के समय वेबसाइट पर नेताओं पर दर्ज केस की संख्या दिखाना बस उसी तरह है जैसे तंबाकू के रैपर पर कैंसर होता है, लिखकर उसे बेचा जाना। सरकार को जब पता है कि तंबाकू घातक है तो उसका निर्माण भी तो रोका जा सकता है? इसी तरह राजनीति में क्रिमिनल बैकग्राउंड के नेताओं को टिकट न देकर क्रिमिनल वायरस को रोका जा सकता है। लेकिन, ऐसा हो नहीं रहा। ऐसे में जनता की जिम्मेदारी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है। जैसे हम तंबाकू से कैंसर होने की बात जानने के बाद उसे नहीं खाते, उसी तरह अपराधियों को हमें चुनकर विधानसभा—संसद नहीं भेजना चाहिए, जिससे लोकतंत्र में कैंसर फैलता है।
कोरोना का इलाज तो डॉक्टर को करना है लेकिन जनता चाहे तो चुनाव के समय मात्र ईवीएम का एक बटन दबाकर क्रिमिनल वायरस को जड़ से मिटा सकती है। करना बस इतना है कि जाति—धर्म, दल—विचारधारा से उपर उठकर देशहित, लोकहित का विचार करते हुए बेहतर उम्मीदवार का चयन करना है। बिहार विधानसभा चुनाव से क्रिमिनल वायरस के सफाए की शुरुआत की जा सकती है।