‘मेरी लिखी बात को
हर कोई समझ नहीं पाता
क्योंकि…. मैं अहसास लिखता हूं
और लोग अल्फ़ाज़ पढ़ते हैं’।
. गुलज़ार
… गुलज़ार अहसासों को अल्फाज़ों में कुछ इस कदर उतार देते हैं कि उन्हें पढ़ने वाला, सुनने वाला हर शख्स उसमें खो सा जाता है या कह लीजिए कि बस उन्हीं का होकर रह जाता है। अल्फ़ाज़ और अहसास की दुनिया के किसी जादूगर से हैं गुलज़ार साहब।
… तो आइए आज उनके जन्मदिन के मौके पर आपको बताते हैं कैसे संपूरण सिंह कालरा बन गए गुलज़ार।
‘रोई है किसी छत पर, अकेले ही में घुटकर
उतरी जो लबों पर, नमकीन थी बारिश’
देश बंटा तो बंटवारे की टीस के साथ गुलज़ार साहब का परिवार अमृतसर आकर बस गया। वो एक ऐसा वक्त था जब उन्हें किताबों और जिम्मेदारी में से एक को चुनना था, और उन्होंने ज़िम्मेदारी को चुनते हुए पेट्रोल पंप पर नौकरी कर ली। किताबें छूट गईं लेकिन अल्फाज़ों ने उनका साथ नहीं छोड़ा। वो पन्नों पर अहसासों को उतारते गए। और फिर एक दिन मुंबई आ गए। यहां शब्दों के इस शहंशाह ने गैराज में मैकेनिक का काम किया। इसी दौरान वे प्रोग्रेसिव राइटर एसोसिएशन से जुड़े और उनकी मुलाक़ात गीतकार शैलेंद्र और संगीतकार एसडी बर्मन से हुई। इस मुलाक़ात ने गुलज़ार साहब को उनकी ज़िंदगी का पहला ब्रेक फिल्म ‘बंदिनी’ के रुप में दिया और उनका लिखा गीत ‘मोरा गोरा रंग लेइ लो’ हिट रहा। गुलज़ार साहब के पहले गाने को लता मंगेशकर ने आवाज़ दी। इसके बाद गुलज़ार साहब अपने अल्फ़ाजों के साथ आगे बढ़ते गए और हर दिल में जगह बनाते गए।
‘कभी तो चौंक कर देखे, कोई हमारी तरफ
किसी की आंख में हमको भी इंतज़ार दिखे’
‘एक ही ख्वाब ने सारी रात जगाया है
मैंने हर करवट सोने की कोशिश की है’
एक तरफ गुलज़ार साहब के अल्फाज़ लोगों के दिल में घर बसाते जा रहे थे, तो दूसरी तरफ उनकी धड़कनों में शामिल हुईं राखी। दोनों ने शादी की, लेकिन दोनों के बीच राखी के फिल्मों में काम करने की और गुलज़ार साहब की उन्हें फिल्मों में काम न करने देने की ज़िद हावी हुई और उनकी बेटी बोस्की यानी मेघना गुलज़ार के जन्म के कुछ ही समय बाद दोनों अलग—अलग रहने लगे। लेकिन फिर भी दोनों साथ हैं।
‘कौन कहता है हम झूठ नहीं बोलते
तुम एक बार खैरियत पूछकर तो देखो’
गुलज़ार साहब को साहित्य अकादमी के साथ साथ पद्मश्री से भी नवाज़ा जा चुका है। इतना ही नहीं, फिल्म स्लमडॉग मिलेनियर के गाने ‘जय हो’ लिए उन्हें ऑस्कर से सम्मानित किया गया। उन्हें ग्रैमी अवॉर्ड से भी नवाज़ा जा चुका है।
‘बहुत मुश्किल से करता हूं
तेरी यादों का कारोबार
मुनाफा कम है,
पर गुज़ारा हो जाता है’।
‘मैं तो चाहता हूं
हमेशा मासूम बने रहना
ये जो ज़िंदगी है
समझदार किए जाती है’।
ज़िंदगी को जिस तरीके और सलीके से गुलज़ार साहब हमारे सामने लेकर आते हैं, ऐसा लगता है जैसे बस हमारे ही अहसासों का आइना दिखा रहे हों हमें।
शुक्रिया गुलज़ार साहब, दिल से शुक्रिया।
… और चलते चलते गुलज़ार साहब की एक और नज़्म का हिस्सा आपकी नज़र-
वो मोहब्बत भी तुम्हारी थी, नफरत भी तुम्हारी थी,
हम अपनी वफा का इंसाफ किससे मांगते,
वो शहर भी तुम्हारा था, वो अदालत भी तुम्हारी थी।