
भारत की स्कूली शिक्षा और जापान की स्कूली शिक्षा एक समान थी।जापान की शिक्षा व्यवस्था आज भी वही है,पर भारत में बदल गई।जापान में आज भी स्कूल खुलने के समय से पहले बच्चों और अध्यापकों को स्कूल पहुंच कर अपने-अपने क्लास रूम की सफाई करनी पड़ती है।टिफिन खाने के बाद स्वयं साफ करके रखनी होती है और शाम को छुट्टी होने के बाद क्लास रूम को ठीक करना रहता है।इस काम में अध्यापक भी हाथ बंटाते हैं।
जूनियर हाईस्कूल तक लड़कियां बड़े बाल नहीं रख सकतीं और न ही नेल पॉलिश लगा सकती हैं। स्कूल ड्रेस के अलावा रंग-बिरंगे स्वेटर भी पहनने की छूट नहीं दी गई है। सबसे बड़ी बात कि लव रिलेशन की सख्त पाबंदी है। लड़के भी दाढ़ी नहीं रख सकते और डाई नहीं लगा सकते। कहने का तात्पर्य यह है कि बच्चों को बचपन से साफ-सफाई सिखाई जाती है। वहाँ के स्कूली शिक्षा की साक्षरता दर 99% है।
हम भी अपने स्कूली शिक्षा में यही सब करके बड़े हुए हैं,पर अब अपने देश के बच्चों को साफ-सफाई करते हुए पाए जाने पर आसमान सिर पर उठाया जाता है। जूनियर हाईस्कूल तक हमारी शिक्षा व्यवस्था बहुत बढ़िया थी। अध्यापक रात्रि में भी पढ़ाते थे। उन सभी गुरुबृंद को सादर नमन।
जूनियर हाईस्कूल की शिक्षा पूरी कर हम लोग अस्सी के दशक में पढ़ने के लिए इंटर कॉलेज में पहुंच गए। गांव के कुछ विद्यार्थी वहाँ पहले से पढ़ाई कर रहे थे। हम लोग भी पहुंच गये। अब पढ़ने वालों की संख्या बढ़ गई। दो गांव के विद्यार्थी गांव के खपड़िया बाबा के कुएं पर एकत्रित होते थे। सही समय से स्कूल के लिए प्रस्थान शुरू हो जाता था। सभी साथ स्कूल जाते थे और साथ ही लौटते थे। उस समय केवल पढ़ो-पढ़ो नहीं था। शाम को हम लोग खेलते थे और नहीं तो अखाड़े में लड़ते थे। इसमें कुछ लोग अद्भुत क्षमता के धनी थे। बाद में दो लोग अपने-अपने गांव के प्रधान पद को सुशोभित किए। कुछ लोग खेती किसानी में ही खुश हैं, कुछ सरकार की सेवा करके और कुछ देश की सुरक्षा के लिए फौजी बनकर।
जापान में बच्चों को आज भी झुककर अध्यापकों का अभिवादन करना सिखाया जाता है और यह उसी प्रकार अच्छे संस्कारों में सम्मिलित है, जिस तरह हम अपने गुरुओं का चरण स्पर्श कर आशीर्वाद प्राप्त करते थे।
अरस्तु ने कहा है कि
“शिक्षा की जड़ कड़वी है, पर उसके फल मीठे हैं।”
मेलकम फ़ोर्ब्स ने कहा है कि
“शिक्षा का मकसद एक खाली दिमाग को खुले दिमाग में परिवर्तित करना है।”
रॉबर्ट ग्रीन इग्नेसाल ने कहा है कि
“बिना शिक्षा के कामन सेंस होना, शिक्षा प्राप्त करके भी कामन सेंस न होने से हजार गुना बेहतर है।”
अर्नेस्ट डेमनेट ने कहा है कि
“बच्चों को शिक्षित किया जाना चाहिए , पर उन्हें खुद को शिक्षित करने के लिए भी छोड़ दिया जाना चाहिए।”
(प्रेम कुमार सिंह उत्तर प्रदेश के सेवानिवृत्त अभियंता हैं और एक स्वतंत्र ब्लॉगर। वह विभिन्न मुद्दों पर अपने ब्लॉग Thoughts Unfiltered में अपनी बेबाक राय रखते हैं। पीके सिंह ने यह लेख UNBIASED INDIA के साथ साझा किया है।)