जब ख़ामोश हुई शहनाई | Death Anniversary

शहनाई को अपनी बेगम कहने वाले भारत रत्न उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान की आज पुण्यतिथि है। उनके बारे में लिखते हुए जब मेरी उंगलियां की बोर्ड पर चल रही हैं तो याद आ रही हैं शहनाई पर तान छेड़तीं, हर किसी को मंत्रमुग्ध करतीं उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान साहब की उंगलियां। उनके बारे में लिखते हुए समझ नहीं आ रहा कि आपसे क्या क्या साझा करुं। क्या ये बताऊं कि जब उनसे किसी ने कहा कि इस्लाम में संगीत हराम है तो उन्होंने क्या कहा? उन्होंने कहा था, ‘क्या हुआ इस्लाम में संगीत की मनाही है, क़ुरान की शुरुआत तो बिस्मिल्लाह से ही होती है।’
काशी के कण कण को अपने मन में बसाए उस्ताद साहब यहां कुछ ऐसे रमे थे कि गंगा में वज़ू करके नमाज़ पढ़ते थे और मां सरस्वती को याद करके शहनाई की तान छेड़ते थे। सही मायनों में संगीत की सच्ची साधना यही तो है जो आपको मज़हब की बंदिशों में नहीं बांधता। जो आपको धर्म, जाति के बंधनों से मुक्त रखता है। वे पांच वक्त की नमाज़ भी पढ़ते थे और मां सरस्वती की उपासना भी। उनकी शहनाई की धुन से बाबा विश्वनाथ के कपाट खुला करते थे। गंगा मइया, संकटमोचन और बालाजी मंदिर के बिना वे अपने जीवन की कल्पना ही नहीं करते थे।
एक और मशहूर किस्सा याद आ रहा है। एक बार उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान साहब शिकागो विश्वविद्यालय में संगीत सिखाने गए। वहां उनसे कहा गया कि आप यहीं रुक जाएं, आपको यहां बनारस का पूरा माहौल बनाकर दिया जाएगा। इस पर उस्ताद साहब बोले- ‘ये सब तो कर लोगे मियां लेकिन मेरी गंगा कहां से लाओगे।’
बिहार के डुमरांव में 21 मार्च 1916 को जन्मे बिस्मिल्लाह खां साहब के जन्म के समय उनके दादा ने अल्लाह का शुक्रिया अदा करते हुए बिस्मिल्लाह कहा, और बस उनका नाम बिस्मिल्लाह रख दिया गया। बेहद कम उम्र में उन्हें शास्त्रीय संगीत की तमाम विधाओं को सीख लिया था। 1947 में जब देश आज़ाद हुआ उसकी पूर्व संध्या पर लाल किले पर एक तरफ शान से तिरंगा लहराया तो उसका स्वागत उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की शहनाई भी कर रही थी।
शहनाई को नौब़तख़ानों से निकालकर अंतर्राष्ट्रीय मंच तक ले जाने वाले उस्ताद साहब को सभी नागरिक सम्मानों पद्मश्री, पद्मभूषण, पद्मविभूषण और भारत रत्न से सम्मानित किया गया। इसके अलावा संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, ईरान के राष्ट्रीय पुरस्कार समेत कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से उन्हें नवाज़ा गया। भारतीय संगीत की वे ऐसे शख्सियत हैं जिन पर आधा दर्जन से ज्यादा किताबें लिखी गई हैं।

जहां एक तरफ उनके चाहने वालों ने उनकी शहनाई की तान को आज भी अपने पास संजो कर रखा है तो वहीं जिन पर उनकी विरासत, उनकी अमानत को संजोने का ज़िम्मा थाष उन्होंने ही अमानत में खयानत डाली। दिसंबर 2016 में उनकी पांच शहनाईयां चोरी कर ली गईं, जिनमें से चार चांदी की थीं। इनमें से एक शहनाई पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव ने उन्हें उपहार में दी थी एक शहनाई पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल, एक राष्ट्रीय जनता दल के सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव और अन्य दो उनके शिष्य शैलेष भागवत और एक आधी चांदी से जड़ी शहनाई खां साहब के उस्ताद और मामा अली बक्श साहब ने उन्हें भेंट स्वरुप दी थी। जब इस मामले का खुलासा हुआ तब पता चला कि उनके पोते शादाब ने ही वो शहनाईयां चुरा कर बेच दी थीं, जिन्हें पुलिस ने बाद में गली हुई हालत में बरामद किया।
उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब को संगीत का कबीर कहा जाता था। 21 अगस्त 2006 को जब उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा तो हिंदू और मुसलमानों का हुजूम उमड़ पड़ा। एक तरफ फातिहा पढ़े जा रहे थे तो दूसरी तरफ सुंदरकांड के पाठ हो रहे थे। ऐसी विदाई न कभी किसी को दी गई और शायद न ही किसी को दी जाएगी। क्योंकि संगीत का कबीर एक ही था जिनकी शहनाई की तान आज भी गूंजती है, जो सदा गूंजती रहेगी और याद दिलाती रहेगी उस्तादों के उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की।

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