वैसे तो हर दिन के साथ कुछ न कुछ ख़ास जुड़ा हुआ है, लेकिन 3 अगस्त के साथ जुड़ी है बाबा आमटे को दिए गए सबसे बड़े सम्मान की दास्तान। बाबा आमटे को इसी दिन 1985 में रमन मैग्सेसे पुरस्कार दिया गया था।
बाबा, कितना प्यारा सा शब्द है न? आज हम जिस शख्सियत की कहानी आपके लिए लेकर आए हैं उन्हें उनके माता—पिता ही बाबा कहकर पुकारने लगे थे। उनके पास सब कुछ था, हर तरह का ऐशो आराम, हर तरह की सुविधा, मतलब वो हर संसाधन जिसकी ख्वाहिश हर किसी को होती है, या कह लीजिए उससे भी ज्यादा। आठ भाई बहनों में वे सबसे बड़े थे, स्पोर्ट्स कार चलाते थे, चौदह साल की उम्र में उनके पास खुद की बंदूक थी। पर इन सबसे अलग उनके पास था एक बहुत ही प्यारा सा दिल, जो ऊंच नीच, धर्म जाति के बंधन को नहीं मानता था। जो किसी के दर्द को न सिर्फ महसूस कर सकता था बल्कि उसे दूर करने के लिए भी दिन रात एक करता था। वो बाबा थे बाबा आमटे।
सम्मानों की झड़ी
बाबा ने जो समाज को दिया उसके लिए उन्हें रमन मैग्सेसे पुरस्कार के अलावा भी कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। इनमें पद्मश्री, पद्म भूषण, जमनालाल बजाज सम्मान,नागपुर विश्वविद्यालय से डी-लिट उपाधि, अमेरिका का डेमियन डट्टन पुरस्कार, पूना विश्वविद्यालय से डी-लिट उपाधि, घनश्यामदास बिड़ला अंतरराष्ट्रीय सम्मान, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार ऑनर, टेम्पलटन पुरस्कार, ग्लोबल 500 संयुक्त राष्ट्र सम्मान, स्वीडन का राइट लाइवलीहुड सम्मान, गाँधी शांति पुरस्कार, महाराष्ट्र भूषण जैसे सम्मान शामिल हैं।
बाबा का जीवन
बाबा का असली नाम मुरलीधर आमटे था। वे बेहद निडर थे। अपनी ज़िंदगी मां की ममता और पिता के संरक्षण में सुकून के साथ बिता रहे थे, लेकिन बरसात के एक दिन ने उनकी ज़िंदगी को पूरी तरह बदल दिया। बाबा घर लौट रहे थे तभी रास्ते में उन्हें गठरी जैसा कुछ दिखा, बाबा ने पास जाकर देखा तो एक आदमी जिसकी उंगलियां तक गल चुकी थीं, जिसके शरीर पर कीड़े लगे हुए थे। मरणासन्न हालत में वो वहां भीगकर कांप रहा था। उसे देखकर बाबा घबरा गए, वे वहां से भागकर घर आए लेकिन अगले ही पल उन्हें लगा कि नहीं, मैं इस हालत में उसे अकेला नहीं छोड़ सकता। बाबा वापस गए और उन्होंने उसे खाना खिलाया, बांस का एक शेड तैयार किया। उसकी देखभाल की, लेकिन इसी दौरान कुष्ठ रोग से पीड़ित वो व्यक्ति मर गया। इसके बाद बाबा ने आजीवन कुष्ठ रोगियों की सेवा का संकल्प लिया और इसे निभाने के लिए उन्होंने तीन कुष्ठ और विकलांग आश्रम बनाए।
कुष्ठ रोग मिटाने का अभियान
बाबा ने एक पेड़ के नीचे आनंदवन में अस्पताल की शुरुआत की। और इसके बाद कई कुष्ठ निवारण केंद्र खोले गए। बाबा ने लोगों को समझाया कि कुष्ठ एक संक्रामक रोग नहीं है। इसे लेकर जितने भी तरह के भ्रम थे बाबा ने उन्हें दूर करने की कोशिश की। 1990 में बाबा ने आनंदवन छोड़ दिया और मेधा पाटेकर के साथ नर्मदा बचाओ आंदोलन का हिस्सा बने। बाबा अक्सर कहा करते थे, “मैंने कुष्ठ रोग को खत्म करने के लिए किसी की मदद नहीं की बल्कि लोगों के बीच में इस रोग से पैदा हुए डर को खत्म करने के लिए यह कदम उठाया”।
गांधी ने कहा था अभय साधक
बहुत कम लोग जानते हैं कि बाबा आमटे को हॉलीवुड फिल्में देखने और लिखने का बहुत शौक था। वे फिल्मों की ऐसी समीक्षा लिखा करते कि एक बार अमेरिकी अभिनेत्री नोर्मा शियरर ने पत्र लिखकर उनकी तारीफ की। बाबा ने कई किताबें भी लिखीं। एक बार बाबा ने ब्रिटिश सैनिकों से एक लड़की की जान बचाई। ये बात जब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को पता चली तो उन्होंने बाबा को ‘अभय साधक’ नाम दिया।
26 दिसंबर 1914 को महाराष्ट्र के वर्धा की धरती पर जन्म लेने वाले बाबा ने 9 फरवरी 2008 को अंतिम सांस ली। लेकिन उन्होंने समाज को जिस सोच की सौगात दी, उस सोच के ज़रिए बाबा हमेशा हमारे बीच हैं। बाबा को नमन।