आज हम आपके लिए लेकर आए हैं उस शख्सियत की कहानी जिनकी ज़िंदगी हॉकी स्टिक और गोल के इर्द—गिर्द ही घूमती रही। एक ऐसी हस्ती जिनका मुरीद खुद जर्मनी का तानाशाह हिटलर तक था। जिनके चाहने वाले प्यार से दद्दा कहकर बुलाते थे। जिनके खेल को देखकर डॉन ब्रैडमैन ने कहा था, ‘आप तो क्रिकेट के रन की तरह गोल बनाते हैं।’ उनकी हॉकी स्टिक जिस तरीके से गोल तक पहुंचती थी उसे देखकर लोगों को शक हो जाता था कि उनकी स्टिक में कहीं कोई चुंबक या गोंद तो नहीं। जी हां, आप बिल्कुल ठीक समझे, हम बात कर रहे हैं मेजर ध्यानचंद की।
… तो आइए आज मेजर ध्यानचंद की जयंती पर उनकी ज़िंदगी, उनकी हॉकी के कुछ पन्ने पलटते हैं और उन्हें थोड़ा और करीब से जानते हैं।
• हॉकी के इस जादूगर ने चौदह साल की उम्र में पहली बार हॉकी स्टिक थामी थी। लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि बचपन में ध्यानचंद को पहलवानी पसंद थी।
• 21 साल की उम्र में पहली बार उनका सलेक्शन न्यूजीलैंड जाने वाली इंडियन टीम के लिए हुआ।
• ध्यानचंद हॉकी की इतनी ज्यादा प्रैक्टिस किया करते थे कि उनके अभ्यास को चांद निकलने से जोड़कर देखा जाने लगा था। यही वजह है कि उनके साथी खिलाड़ियों ने उन्हें ‘चांद’ नाम दिया था।
• बर्लिन के हॉकी स्टेडियम में मेजर ध्यानचंद ने नंगे पैर हॉकी खेली और हमेशा की तरह गोल्स की झड़ी लगा दी।
• 1928 के एम्सटर्डम ओलिंपिक में उन्होंने भारत की ओर से सबसे ज्यादा 14 गोल किए। उनके खेल को देखकर एक अखबार ने लिखा था, ‘यह हॉकी नहीं बल्कि जादू था। और ध्यानचंद हॉकी के जादूगर हैं।’
• 1936 के ओलंपिक हिटलर के शहर बर्लिन में हुए। मेजर ध्यानचंद के खेल को देखकर हिटलर इतना प्रभावित हुआ कि उसने उन्हें जर्मनी की सेना में शामिल होने का ऑफर दिया जिसे मेजर ध्यानचंद ने बड़ी ही विनम्रता से यह कहकर ठुकरा दिया कि, ‘’मैंने भारत का नमक खाया है, मैं भारतीय हूं और भारत के लिए ही खेलूंगा।’उस समय ध्यानचंद लांस नायक थे और हिटलर ने उन्हें कर्नल का ओहदा देने की बात कही थी।
• 1956 में मेजर ध्यानचंद को भारत रत्न से सम्मानित किया गया और साथ ही उनके जन्मदिन को खेल दिवस के रुप में मनाने की घोषणा की गई। साथ ही खेल में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिए अर्जुन पुरस्कार और द्रोणाचार्य पुरस्कार भी दिया जाता है।
• विएना के एक स्पोर्ट्स क्लब में ध्यानचंद के चार हाथों में हॉकी स्टिक वाली वाली मूर्ति लगाई गई है, जो बताती है कि उनकी स्टिक में कितना जादू था।
• भारत सरकार ने मेजर ध्यानचंद के सम्मान में साल 2002 में दिल्ली में नेशनल स्टेडियम का नाम ध्यान चंद नेशनल स्टेडियम रख दिया।
• हॉलैंड में जहां खेल के दौरान उनकी स्टिक तोड़कर चेक की गई तो वहीं जापान में ये चेक किया गया कि कहीं हॉकी स्टिक में गोंद तो नहीं। लेकिन ये सारे आरोप हमेशा निराधार साबित हुए।
• 1948 में उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय हॉकी को अलविदा कहा।
खेल मैदान पर ही अंतिम संस्कार
3 दिसंबर, 1979 को जब उनका निधन हुआ तब उनका अंतिम संस्कार उसी खेल मैदान पर किया गया जहां वे खेला करते थे। क्योंकि सभी जानते थे कि हमारा ये जादूगर तो दुनिया में आया ही अपनी हॉकी के जादू को दिखाने के लिए था। वे जब तक जिए खेल के लिए ही जिए और अपने बाद भी यहीं हैं खेल के मैदान में, खेल का हिस्सा बनकर। अपनी आत्मकथा गोल में उन्होंने लिखा- आपको मालूम होना चाहिए कि मैं बहुत साधारण आदमी हूं। उनकी लिखी ये बात ये बताने के लिए काफी है भले ही वो कितने भी कामयाब क्यों न हों, हमेशा ज़मीन से जुड़े रहे। हॉकी के साथ उनका जो रिश्ता कायम हुआ वो सदियों तक कायम रहेगा और सुनाता रहेगा कहानी गोल की