एक अगस्त 1933 को मुंबई में एक प्यारी सी बच्ची ने जन्म लिया। लेकिन उस बच्ची के माता—पिता के पास इतने पैसे नहीं थे कि वे उसे पाल सकें। तो पिता ने अपनी बच्ची को अनाथाश्रम में छोड़ दिया। लेकिन ज्यादा वक्त तक वे अपनी बच्ची से दूर नहीं रह पाए और जब वापस लौटे तो उन्होंने देखा कि उनकी फूल सी बच्ची के शरीर से चींटियां चिपकी हुई हैं और अनाथाश्रम का दरवाज़ा बंद है। उन्होंने तुरंत अपनी बच्ची को उठाया और गले से लगाया। उसके शरीर को साफ किया और घर लेकर आ गए। इस बच्ची का नाम उन्होंने बड़े प्यार से रखा महज़बीं बानो। जानते हैं, आगे चलकर यही बच्ची ट्रेजडी क्वीन मीना कुमारी के नाम से मशहूर हुई।
मीना कुमारी ने सात साल की उम्र में बतौर चाइल्ड आर्टिस्ट बड़े परदे पर कदम रखा। उनके पिता अली बख्श और मां प्रभावती देवी भी रंगमंच से जुड़े रहे। 1939 में बेबी महज़बीं बनकर वो फिल्म ‘लैदरफेस’ में नज़र आईं तो वहीं 1940 में निर्देशक विजय भट्ट ने अपनी फिल्म ‘एक ही भूल’ में उनका नाम बदलकर बेबी मीना कर दिया। 1952 में आई फिल्म ‘बैजू बावरा’ ने उन्हें बड़े परदे पर एक अलग पहचान दिलायी और मीना कुमारी ने लाखों दिलों में अपनी जगह बनाई। उनकी ये फिल्म सौ हफ्ते तक परदे पर रही। इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और एक के बाद एक हिट फिल्में देती चली गईं।
इसी दौरान उनकी मुलाक़ात निर्देशक कमाल अमरोही से हुई। दोनों के बीच मुलाकातों के सिलसिलों ने प्यार को परवान चढ़ाया और फिर दोनों शादी के बंधन में बंध गए। बताया जाता है कि कमाल अमरोही ने मीना कुमारी से कुछ शर्तों के साथ शादी की थी जिन्हें मीना ने मान भी लिया था।
क्या थीं वो शर्तें
- मेकअप रुम में मेकअप आर्टिस्ट के अलावा कोई दूसरा पुरुष नहीं आना चाहिए।
- शाम 6.30 बजे वे घर लौटेंगी।
मीना कुमारी इन शर्तों को मानती भी रहीं और कभी कभी तोड़ती भी। इस दौरान कमाल अमरोही ने उनके पीछे जासूस भी लगा दिया। इन सबके बीच अक्सर मीना की सूजी आंखें लोगों के सामने उनकी ज़िंदगी का उदास सच लाने लगी थीं। और फिर 1964 में मीना कुमारी और कमाल अमरोही अलग हो गए।
इस दौरान एक किस्सा और याद आ रहा है। इरोस सिनेमा के एक प्रीमियर के दौरान महाराष्ट्र के राज्यपाल से मुलाकात के दौरान सोहराब मोदी ने परिचय कराते हुए कहा, कि ये मीना कुमारी हैं और ये उनके पति कमाल अमरोही। जिस पर अमरोही ने कहा कि मैं कमाल अमरोही हूं और ये मेरी पत्नी मीना कुमारी। इसके बाद अमरोही प्रीमियर छोड़कर चले गए।
अमरोही के खराब बर्ताव और उनसे अलगाव ने मीना कुमारी को अंदर से तोड़ दिया था। जिसकी वजह से उन्होंने शराब पीनी शुरु कर दी। इससे उन्हें लीवर का कैंसर हो गया और 31 मार्च 1972 को मात्र 38 वर्ष की आयु में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया।
दुनिया से जाते जाते मीना कुमारी ने एक वसीयत लिखी और अपनी सबसे कीमती धरोहर को गुलज़ार साहब के नाम कर दिया। वो कीमती धरोहर है उनकी नज्में। जी हां, बहुत कम लोग जानते हैं कि मीना कुमारी एक बेहतरीन शायरा थीं। गुलज़ार साहब ने उनकी नज़्मों को किताब की शक्ल देकर उनके तमाम चाहने वालों के सुपुर्द कर दिया।
… तो आइए आज आपको मीना कुमारी के अल्फाज़ों की दुनिया में ले चलते हैं उनकी चुनिंदा शायरी के साथ।
आग़ाज़ तो होता है अंजाम नहीं होता
जब मेरी कहानी में वो नाम नहीं होता।
नमी सी आंख में और होंठ भी भीगे हुए से हैं
ये भीगा-पन ही देखो मुस्कुराहट होती जाती है।
हाँ, कोई और होगा तूने जो देखा होगा
हम नहीं आग से बच-बचके गुज़रने वाले
न इन्तज़ार, न आहट, न तमन्ना, न उमीद
ज़िन्दगी है कि यूँ बेहिस हुई जाती है
इतना कह कर बीत गई हर ठंडी भीगी रात
सुखके लम्हे, दुख के साथी, तेरे ख़ाली हात
हाँ, बात कुछ और थी, कुछ और ही बात हो गई
और आँख ही आँख में तमाम रात हो गई
कई उलझे हुए ख़यालात का मजमा है यह मेरा वुजूद
कभी वफ़ा से शिकायत कभी वफ़ा मौजूद।
चाँद तन्हा है आसमाँ तन्हा,
दिल मिला है कहाँ-कहाँ तन्हा
बुझ गई आस, छुप गया तारा,
थरथराता रहा धुआँ तन्हा
ज़िन्दगी क्या इसी को कहते हैं,
जिस्म तन्हा है और जाँ तन्हा
हमसफ़र कोई गर मिले भी कभी,
दोनों चलते रहें कहाँ तन्हा
जलती-बुझती-सी रोशनी के परे,
सिमटा-सिमटा-सा एक मकाँ तन्हा
राह देखा करेगा सदियों तक
छोड़ जाएँगे ये जहाँ तन्हा।
… और वाकई मीना कुमारी ने तन्हाई के आग़ोश में ही अंतिम सांस ली। लेकिन उन्होंने रुपहले परदे पर जिन किरदारों को जिया वो लाखों लोगों के ज़ेहन में ताउम्र बसे रहे। उनकी अदायगी हो या शायराना अंदाज़ हमेशा हमारे साथ रहेगा। बिल्कुल वैसे ही जैसे आसमान के पास उसकी महज़बीं है, हमारे पास हमारी महज़बींन के अल्फाज़ों की सौगात है।